मणिमहेश कैलाश को यूं ही नहीं कहते शिवभूमि
हिमाचल प्रदेश को देवी-देवताओं, गंधर्वों और किन्नरों की भूमि माना जाता है…देश के इस राज्य का चंबा जनपद धौलाधार, पीर पंजाल और जांस्कर नाम की गगनचुंबी पहाड़ों की छोटी-बड़ी पर्वतमालाओं से घिरा भगवान शिव को समर्पित पंच कैलास पर्वतों में से एक पाक पवित्र कैलाश पर्वत भी है…जिसे मणिमहेश कैलाश पर्वत कहा जाता है…
मणिमहेश कैलाश पर्वत की शोभा है सरोवर
मणिमहेश नाम से दुनियाभर में मशहूर कैलाश पर्वत की तलहटी में एक मणिमहेश नाम से एक पवित्र सरोवर भी है…जिसका आकार सामान्य सरोवरों की तुलना में कुछ छोटा है…और इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में भगवान शिव का पाक पवित्र निवास स्थान कैलाश पर्वत…जिसकी गगनचुंबी बर्फ से लकदक हिमाच्छादित चोटी की ऊंचाई समुद्रतल से करीब 18 हजार 564 फीट है…
इस जनपद की शोभा बढ़ाता है ये मणिमहेश कैलाश पर्वत
वर्तमान में मणिमहेश कैलाश पर्वत हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले के भरमौर उपमंडल के तहत आता है…पूर्व में भरमौर शहर सूर्यवंशी राजाओं के मरु शाखा राजाओं की शाखा राजा गरु वर्मा के स्वतंत्र राज्य की राजधानी था…ये राज्य अपने आप में एक धार्मिक सांस्कृतिक और धनमान्य की नजर से एक वैभवपूर्ण राज्य था…जिसका प्रमाण भरमौर में आज भी स्तिथ वो प्राचीन मंदिर हैं जो आज भी उस चिरकाल की उच्चकला के स्तर से हमसबको मोहित कर लेते हैं…और उस काल की अजब कलाकारी को वर्तमान में भी संजोये हुये हैं…
आज का भरमौर था कल का ब्रम्हपुर
किवदंतियां तो यहां तक हैं कि जिस ब्रम्हलोक और शिवलोक की हम अमूमन बातें करते हैं वो और कहीं नहीं बल्कि इसी ब्रह्मांड में है, मृत्युलोक में आज भी उनके अपभ्रंश नाम हमें उनके होने का उद्बोधन या आभाष करवाते हैं…विश्वास नहीं होता तो आज का भरमौर कल का ब्रह्मपुर था, जो कि कैलाश पर्वत यानीकि शिवलोक से ठीक नीचे स्थापित था जहां ब्रह्मांड की राणी मां ब्रह्माणी आज भी भरमाणी नाम से विद्यमान हैं…कहते हैं कि मां भरमाणी जिन्हें के बह्माणी के नाम से भी जाना जाता रहा है वो बुद्दि की देवी हैं और उन्हीं के नाम से इस घाटी का नाम बुद्धिल घाटी भी पड़ा है और मणिमहेश कैलाश पर्वत भी बुद्धिल घाटी के शिखर पर ही स्थित है…इतना ही नहीं अपभ्रंश नाम से बह रह बुड्ढल नदी भला कल की बुद्धिल नदी क्यों नहीं हो सकती…अर्थात यही नदी कल तक बुद्धिल नदि के नाम से
जानी जाती थी…
कब से शुरू हुई थी मणिमहेश कैलाश पर्वत की यात्रा
कैलाश यात्रा का प्रमाण आज से नहीं बल्कि आदिकाल से हमें हमारे शास्त्रों, वेदों-पुराणों आदि में पढ़ने को मिलता है…कहते हैं कि शिवभक्त और भगवान शंकर के शिष्य लंकापति रावण तो अपने इष्टदेव और गुरुदेव के दर्शन और पूजा करने के लिये हर रोज कैलाश पर्वत जाया करते थे…भगवान श्रीकृष्ण ने भी पुत्र प्राप्ति के लिये भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु कैलाश की यात्रा की थी…इतना ही नहीं 550 ईस्वी में भरमौर के तत्कालीन नरेश मरुवर्मा के द्वारा भी भगवान शिव के दर्शन और पूजन करने के लिये कैलाश पर्वत आने-जाने का उल्लेख मिलता है…बावजूद इसके वर्तमान की पारंपरिक सालाना मणिमहेश कैलाश यात्रा ताल्लुक आज 920 ईस्वी पूर्व से लगाया जाता है…उस समय मरु वंश के वंशज राजा साहिल वर्मा जिन्हें शैल वर्मा के नाम से जाना जाता रहा है वो भरमौर के शासक थे…
क्या है साहिल वर्मा की पृष्ठभूमि और मणिमहेश कैलाश से संबंध
शुरू में भरमौर नरेश साहिल वर्मा निसंतान थे, कहा और सुना ये जाता है कि उनके कार्यकाल के दौरान उस वक्त चौरासी योगी महात्मा उनकी राजधानी में पधारे, राजा के विनम्र भाव, आदर-सत्कार सम्मान से वो 84 योगी इतने प्रसन्न हुये कि उन्होंने राजा को दस पुत्रों की प्राप्ति समेत एक गुणवान शीलवान चंपावती नाम की कन्या के साथ 11 संताने होने का वरदान दे डाला…संतान प्राप्ति से खुश होकर राजा साहिल वर्मा ने इन 84 योगियों के सम्मान में भरमौर में 84 सिद्ध पीठों का जिन्हें हम मंदिर भी कहते हैं, इन्हीं मंदिरों में से एक भगवान शिव को समर्पित मणिमहेश मंदिर और मां लखना देवी का मंदिर भी शुमार है…जो कि आज भी ज्यों के त्यों नजर आते हैं…साथ ही भरमौर के चौरासी प्रांगण को चार चांद लगाते हैं और यहां आज भी लाखों श्रद्धालू भक्तों के सैलाव की आस्था गोते लगाती साफ नजर आती है…
मणिमहेश कैलाश का महत्व
मणिमहेश कैलाश पर्वत उन तीर्थ स्थानों में शुमार है जिनका गुणगाण सनातन संस्कृति के महान ग्रंथों वेद-पुराणों में भी पढ़ने और सुनने को मिलता है…यहां पहुंचकर श्रद्धालू भक्तों का मन स्वत ही भक्ति के सरोवर में गोते लगाने लगता है…इसके पीछे से जब भगवान सूर्यदेव उदय होते हैं तो यूं प्रतीत होता है मानों समूचे आकाश मंडल में नीलिमा छा गई हो…वहीं कैलाश पर्वत से ठीक नीचे बर्फ से घिरा एक छोटा सा शिखर पिंडी रूप में नज़र आता है…स्थानीय लोगों के मुताबिक जो भारी हिमपात होने पर भी हमेशा ज्यों का त्यों दिखाई देता है…यानीकि इस पिंडी स्वरूप को बर्फ कभी छू तक भी नहीं सकती…और अमूमन यही सबसे बड़ा सृष्टिकर्ता का चमत्कार नज़र आता है…भक्तजन इन्हीं को भगवान शिव का साक्षात स्वरूप इस रूप में विराजमान मानते हैं और उन्हें दंडवत प्रणाम करते हुये भगवत भक्ति के सरोवर में गोते लगाते हुये सरावोर होते हैं…तो वहीं इसी पर्वत के इर्द-गिर्द निकले दूसरे शिखरों को क्रमश माता पार्वती, भगवान श्री गणेश जी, कार्तिकेय जी और नंदी आदि के प्रतीक के रूप में पूजा और जाना-पहचाना जाता है…कहा ये जाता है कि यहां यात्रा करने वाले तमाम भक्तजनों की झोलियां कभी खाली नहीं रहती भगवान शिव हर लिहाज से अपने इस पाक पवित्र तीर्थ स्थान पर आने वाले की हर मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं